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ये ख़्वाब तो पलकों पे सजाने के लिए हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
बंदगी हमने छोड़ दी फ़राज़ क्या करें लोग जब खुदा हो जाएं । " अहमद फ़राज़
ये ख़्वाब तो पलकों पे सजाने के लिए हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
जिस तरह तुम गुजारते हो फ़राज़ जिंदगी उस तरह गुज़रती नहीं। " अहमद फ़राज़
आँखें जो उठाए तो मोहब्बत का गुमाँ हो
नज़रों को झुकाए तो शिकायत सी लगे हैजिस व्यक्ति ने कभी गलती नहीं की , उसने कभी कुछ नया करने की कोशिश नहीं की । " अहमद
फ़राज़
अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द मिटा दें
वो रोज़ देखते हैं डूबते हुए सूरज को फ़राज़ , काश मैं भी किसी शाम का मंज़र होता। " अहमद फ़राज़
इतने मायूस तो हालात नहीं
लोग किस वास्ते घबराए हैं फ़िराक़ गोरखपुरी
शायद खुशी का दौर भी आ जाए । एक दिन फ़राज़ , ग़म भी तो मिल गये थे तमन्ना किये बगैर । " अहमद फ़राज़
आहट सी कोई आए तो लगता है कि तुम हो
साया कोई लहराए तो लगता है कि तुम होइक उम्र कट गई है ।तिरे इंतिज़ार में ऐसे भी हैं कि कट न सकी जिन से एक रात
फ़िराक़ गोरखपुरी
अब मायूस क्यों हो उसकी बेवफ़ाई पे फ़राज़ , तुम खुद भी तो कहते थे । कि वो सबसे जुदा है। " अहमद फ़राज़
इन बारिशों से दोस्ती अच्छी नहीं फ़राज़ , कच्चा तेरा मकान है कुछ तो ख्याल कर । " अहमद फ़राज़
कौन देता है उमर भर का सहारा ऐ फ़राज़ , लोग जनाज़े में भी कांधे बदलते रहते हैं । " अहमद फ़राज़
सोचा था कि वो बहुत टूट कर चाहेगा हमें फ़राज़ , लेकिन चाहा भी हम ने और टूटे भी हम । " अहमद फ़राज़
आज तो मिल के भी जैसे न मिले हों तुझ से
चौंक उठते थे कभी तेरी मुलाक़ात से हममेरे जज़्बात से वाकिफ़ है मेरा कलम फ़राज़ , मैं प्यार लिखू तो तेरा नाम लिख जाता है। " अहमद फ़राज़
किसी से जुदा होना अगर इतना । आसां होता फ़राज़ , जिस्म से रूह को लेने कभी फ़रिश्ते ना आते । " अहमद फ़राज़
दिल्ली कहाँ गईं तिरे कूचों की रौनक़ें
गलियों से सर झुका के गुज़रने लगा हूँ मैंफ़िराक़ गोरखपुरी
तेरे बाद न आएगा मेरी ज़िंदगी में कोई और फ़राज़ , एक मौत है कि जिसकी हम कसम नहीं देते । " अहमद फ़राज़
मैं जब भी उस के ख़यालों में खो सा जाता हूँ
वो ख़ुद भी बात करे तो बुरा लगे है मुझेफ़िराक़ गोरखपुरी
ये वफ़ा तो उन दिनों कि बात है फ़राज़ , जब मकान कच्चे और लोग सच्चे हुआ करते थे। " अहमद फ़राज़
जब लगें ज़ख़्म तो क़ातिल को दुआ दी जाए
है यही रस्म तो ये रस्म उठा दी जाए
मैं हूँ दिल है तन्हाई है ।तुम भी होते अच्छा होता
फ़िराक़ गोरखपुरी ।
वो बात - बात पे देता है परिदों की मिसाल साफ़ साफ़ नहीं कहता मेरा शहर ही छोड़ दो। " अहमद फ़राज़
और क्या इस से ज़ियादा कोई नर्मी बरतूँ
दिल के ज़ख़्मों को छुआ है तिरे गालों की तरह फ़िराक़ गोरखपुरी
मैं खुदा की नज़रों में भी गुनहगार होता हे फ़राज़ , कि जब सजदों में भी वो शख़्स मुझे याद आता है। " अहमद फ़राज़
शर्म तुम को मगर नहीं आती
मिर्ज़ा ग़ालिब
कभी जो ख़्वाब था वो पा लिया है
मगर जो खो गई वो चीज़ क्या थी |
जावेद अख़्तर
अगर पलक पे है मोती तो ये नहीं काफ़ी
हुनर भी चाहिए अल्फ़ाज़ में पिरोने का | जावेद अख़्तर
क्यों डरें जिंदगी में क्या होगा
कुछ नहीं होगा तो तजुर्बा होगा | जावेद अख़्तर
गलत बातों को ख़ामोशी से सुनना हामी भर लेना
बहुत है फ़ायदे इस में मगर अच्छा नहीं लगता ।| जावेद अख़्तर
जिधर जाते हैं सब जाना उधर अच्छा नहीं लगता
मुझे पामाल रस्तो का सफ़र अच्छा नहीं लगता | जावेद अख़्तर
तुम ये कहते हो कि में गैर हूं फिर भी शायद
निकल आए कोई पहचान ज़रा देख तो लो | जावेद अख़्तरहमें ये शौक़ है क्या आस्तीं भिगोने का | जावेद अख़्तर
ये ज़िंदगी भी अजब कारोबार है कि मुझे
ख़ुशी है पाने की कोई न रंज खोने का | जावेद अख़्तरयाद उसे भी एक अधूरा अफ़्साना तो होगा
कल रस्ते में उस ने हम को पहचाना तो होगा | जावेद अख़्तर
है पाश पाश मगर फिर भी मुस्कुराता है
वो चेहरा जैसे हो टूटे हुए खिलौने का | जावेद अख़्तरकहते हैं कि 'ग़ालिब' का है अंदाज़-ए-बयाँ और
मिर्ज़ा ग़ालिब
दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है
मिर्ज़ा ग़ालिब
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर(माशूका)पे दम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है
मिर्ज़ा ग़ालिब
अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता
मिर्ज़ा ग़ालिब
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता
मिर्ज़ा ग़ालिब
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने
मिर्ज़ा ग़ालिब
वर्ना हम भी आदमी थे काम के
मिर्ज़ा ग़ालिब
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